ईद विशेष : सच्चाई के रास्ते में जान - माल की कुरबानी के संकल्प का नाम है ईदुल अजहा | Daily Chittorgarh
हर अक़ीदा और नजरिया अपने मानने वालों को जांचने,परखने,निखारने के लिए कोई न कोई पैमाना रखता है।जिससे उसके मानने वालों की अपने अक़ीदे और नजरिये से तअल्लुक की गहराई का पता लगाया जा है,इसको मज़हबी जुबान में कुर्बानी या बलिदान कहते हैं।इस्लाम धर्म में ईदे क़ुरबाँ इसी मकसद को अपने अंदर समेटे हुए है। इस मौके पर एक मुसलमान अपने रब(प्रभु) का कुर्ब (सामिप्य) हासिल करने और उसके रास्ते में हर तरह की कुरबानी के अहद (संकल्प)के जज्बे से चोपायों में से किसी जानवर की कुरबानी पैश करता है।
यूँ तो किसी भी मिशन के लोग रात दिन अपने रास्ते में आने वाली रूकावटों को पार करते हुए अपनी श्रध्दा और उससे अपनी नजदीकियो का सबूत देते रहते है।मगर कुछ खास बातें और अवसर ऐसे होते हैं,जो अपने अंदर बड़ा फैलाव (व्यापकता) लिए होते हैं,जो मानसिक,शारीरिक और आर्थिक हर पहलू को कवर करते हैं।इस तरह की कुर्बानी के ज़रिये इंसान अपने नज़रिये के लिए और ज्यादा त्याग करने का संकल्प लेता है,जो उसके संघर्ष में उसका मददगार होता है। इसी सरमाये की मदद से उसके मिशन के रास्ते में आने वाली हर तकलीफ को वह खुशी खुशी गवारा करता है।वह हर तकलीफ और रूकावट को पार करना अपनी खुशकिस्मति(सौभाग्य) मानता है।ऐसे ही लोग दुनिया में किसी बड़े बदलाव का ज़रिया बनते हैं।जो लोग किसी मिशन से जुड़े होने के बाजूद उसके लिए किसी तरह की कुरबानी देने के जज्बे से खाली हों,ऐसे लोगों से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद तो छोड़िए वह तो उस नजरिये के सही से फालोअर भी नही हो सकते।
इस्लाम एक आलमी मिशन है,जो लोगों को अपने रब(प्रभू) से जोड़ता है।एक खुदा एक इंसान और एक निज़ाम के नारे के साथ वह गलोबल ह्यूमानिटी का दावा करता है।इस पंच लाईन को सुन और पढ़कर हर वह व्यक्ति, समूह और सरकार चोंक जाती है जो पहले से स्थानीयता,व्यक्तिगत , विशिष्ठ सामाजिक घेरे के मार्फ़त मनमाने राजनीतिक इख्तियारात रखती है, उसके लिए उसने बहूत से मनगढ़त विश्वास घढ़े हुए होते हैं और इसी की बदौलत वह लोगों के अंदर अपनी हुकरानी चलाते हैं।इतिहास में ऐसे बाइख्तियार लोगों ने अपने अधिकारों को श्रध्दा का टच देने के लिए ऐसे उपनाम रख लिए जो उन्हें आम लोगों से अलग(विशिष्ट) ज़ाहिर करते थे।ऐसे उपनाम लिए अकसर लोगों ने खुदाई नस्ल के फर्जी दावेदार बनकर अपने अधीन लोगों में एक तरह की धार्मिक पवित्रता और व्यापक सत्ता का भाव पैदा करने में सफलता पाई है।जिसके चलते आम लोगों का सिर्फ इतना कर्तव्य होता है कि वह सामाजिक,धार्मिक और जातीय सत्ता पर बैठे लोगों का अंधानूसरण करें।
इस्लाम ऐसे हर ताल्लुक को झुठलाता और ठुकराता है, जो लोगों को ग़ुलाम बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता हो।चाहे वह बाबिल का नमरूद हो या मिसर का फिरऔन,वह अपने मानने वालों को ऐसी ताक़तों के सामने समर्पण से रोकता है,वहीं वह गलत शासकों या शक्तियों को अपने व्यवहार में बदलाव की नसीहत भी करता है।मगर हर दौर के फिरऔन ने हर उस कोशिश को कुचलने में कोई कमी नही की जिसने उन्हें सुधार की दावत दी,बल्कि वह सुधार के वाहको पर जुल्म ,जबर के साथ टूट पड़े।कभी उनके लिए जेलें (हज़रत यूसुफ अ.) तैयार थीं,कभी उनके लिए आग के अलाव (हज़रत इबराहीम अ.) तैयार थे ,कभी वह तख्तए-दार और कत्ल (हज़रत याह्या अ.) तक पहूंचे तो कभी वह देश निकाला (हज़रत मूहम्मद स.) दे दिए गये।
इतिहास का यह चक्र कभी नही रूका न हक परस्तों ने ज़ुल्म के खिलाफ मोर्चा छोड़ा और न ज़ालिमों ने अपना रवैया बदला ( अपवाद स्वरूप))।कभी पहला समूह तो कभी दूसरा गिरोह हालात पर पकड़ बनाने में सफल रहा। इस्लाम की जद्दोजहद किसी स्थान,ज़ात,नस्ल,भाषा और रंग की पहचान में नही बंधी है।यह एक आलमी जद्दोजहद है जो लोगों को ईश्वर से और लोगों को लोगों से जोड़ने की कोशिश का नाम है।दुनिया के इन दोनों रवैयों के इतिहास से इंसानियत अच्छी तरह से वाकिफ है।इसी लिए हज़रत इबराहीम अ.से लेकर आज तक जुल्म और गलत के खिलाफ कुरबानियों का एक ना-खत्म होने वाला सिलसिला है।हज़रत इबराहीम अ.के दौर का सत्ता प्रमुख नमरूद और ज़ालिम बादशाहों की तरह अपने खुदाई अधिकार का दावेदार था।हज़रत इबराहीम अ.जो खुद एक ऐसे घराने में पैदा हुए जहाँ हाथों से बुत तराशकर उन्हें खुदाई नाम देने का धंधा होता था।मगर हज़रत इबराहीम अ.ने अपने खानदानी पेशे को अतार्किक और अवास्तविक मानते हुऐ उसमें अपने हिस्सेदार बनने का इनकार ही नही किया बल्कि उन्होंने इस खुदातराशी का जमकर विरोध किया।नतीजा सामने था घर और समाज में अछूत बना दिए गये,कृतिम खुदाओं के विरोध में उन्हें आग में डाला गया,मगर आग को आग के पैदा करने वाले ने ठंडा होने का हुक्म दिया इस तरह भौतिकता आध्यात्म से हार गई और हज़रत इबराहीम.सही सलामत आग में से निकाल लिए गये।इतनी क्रूर सज़ा में सफल न होने के बावजूद नमरूद और उसके अंधभक्तों ने हज़रत इबराहीम को छुट्टा नही छोड़ दिया।आज़माईश और परीक्षा का यह दौर देश छोड़ने के मरहले में दाखिल हुआ और आपने अपने वतन के साथ साथ सारे रिश्ते-नाते, सामाजिक और आर्थिक हितों को अपने अक़ीदे (विश्वास) के लिए त्याग दिया,इस समय आपके साथ सिर्फ दो लोग थे, एक आपकी बीवी हज़रत सारा अ. और दूसरे उनके भतीजे हज़रत लूत अ. यह संख्या सही और ग़लत के संख्यात्मक पैमाने के विचार को ठुकराती है।वतन से निकलने के बाद आसपास के इलाकों में लोगों को एक ईश्वर से जोड़ने की आपकी जद्दोजहद जारी रही।हज़रत इस बात को लेकर फिक्रमंद थे कि उनकी कोई औलाद नही है,मेरे बाद मेरे मिशन का क्या होगा?इसके लिए वह अल्लाह (ईश्वर) से दुआ(प्रार्थना) किया करते थे कि "रब्बे हबली मिनस्सालेहीन" (ए अल्लाह मुझे नेक औलाद अता कर)। उम्र के 80वे पड़ाव पर अल्लाह ने औलाद दी जिसका नाम इस्माईल (जिसका अर्थ है अल्लाह ने सुन ली) रखा। इस्माईल अभी दूध पीते बच्चे ही थे कि अल्लाह ने एक और आज़माईश में डाल दिया।मक्का के पथरीले इलाक़े जहाँ न पानी था न चारा और न आबादी,हुक्म दिया गया दोनों माँ बेटे को इस कटोरानुमा जगह (मौजूदा मक्का) पर छोड़ दो जो चारों तरफ पहाडियों से घिरी थी।कुछ दिन के खाने पीने के इंतेज़ाम के साथ दोनों को छोड़ दिया गया।कुछ दिन का खाना पानी जो साथ था वह खत्म हुआ और बच्चा प्यास से बिलकने लगा तो माँ तड़प उठी और कभी इस पहाड़ और कभी उस पहाड़ पर चढ़कर इधर- उधर देखती कि कहीं कोई गुज़रने वाला क़ाफिला नज़र आए तो उससे बच्चे के लिए पानी लिया जाए।माँ इधर -उधर भाग रही है, मासूम इस्माईल प्यास की शिद्दत से ज़मीन पर ऐड़िया मार रहा है। हजरत हाजरा क्या देखती हैं कि मासूम बच्चे की पैरों के यहाँ पानी का चश्मा फूट पड़ा है और वह फैल रहा है।हज़रत हाज़िरा की जैसे ही नज़र पड़ती है वह कहती हैं"ज़म-ज़म" (ठहर जा ठहर जा) इसी से यह चश्मा ज़म ज़म के नाम से मशहूर हुआ।फिर क्या था परिंदों की तेज़ निगाहों ने पानी पाकर वहाँ बसैरा कर लिया।आसपास से गुज़रने वाले क़बीलों ने परिंदों को उड़ते देखा तो पहाड़ पर चढ़ आए,उन्हें पता चला कि एक बच्चा और माँ ने यहाँ डेरा कर रखा है,वह हज़रत हाजिरा के पास पहूंचे और वहाँ ठहरने की इजाज़त चाही,कौन जानता था कि इस तरह एक मासूम और उसकी माँ की कुरबानियों से हज़रत इबराहीम अ.की दावत के आलमी मरकज़ की बुनियाद( आधारशिला) जा रही थी?
वक्त वक्त पर हज़रत इबराहीम माँ बेटों की खबरगीरी कर लिया करते थे।जब हज़रत इस्माईल जवानी की देहलीज़ को पहूंच रहे थे,उसी वक्त हज़रत इबराहीम को हुक्म होता है अल्लाह की राह में अपने लाडले बेटे को कुरबान कर दो।यह तो इंतेहा थी,मगर बाप ,माँ और बेटे ने बे चूँ चरा इस हुक्म पर सिर झुका दिया, अल्लाह को हज़रत इस्माईल की जान नही चाहिए थी बल्कि इबराहीम समेत तीनों का इम्तेहान मकसद था।अल्लाह ने जिस तरह हजरते इबराहीम के लिए नमरूद की आग को ठंडा किया था उसी तरह उसने छुरी के स्वभाव को बदल कर रख दिया जो धारदार होने के बावजूद हज़रत इस्माईल अ.का गला काटने में नाकाम थी।अल्लाह ने हज़रत इस्माईल अ.के बदले एक मेंढा भेजा जिसे कुरबान किया गया,वही छुरी थी और वही इबराहीम थे,छुरी का स्वभाव लौट चुका था।यही ऊपर वाले की परीक्षा थी जिसमें पूरा उतरने पर हज़रत इबराहीम को "खलीलुल्लाह " लक़ब मिला और रहती दुनिया तक उन्हें सच्ची नामवरी अता की गई।आज भी इसी कुरबानी की मिसाल को दोहराकर दुनियाभर के मुसलमान इस बात का एलान करते हैं कि सच्चाई के रास्ते में वह हर तरह के जान और माल की कुरबानी से पीछे नही हटेंगे।इसी का नाम ईदूल अज़हा है।
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